संस्कृत में एक सूक्ति है–
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।
अर्थात् विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है। हमारे भारतीय चिंतन में विद्या का मूल अर्थ– 'सत्य का ज्ञान', 'परमार्थ तत्व का ज्ञान' या 'आत्मज्ञान' बतलाया गया है। वेद-वेदांत में भी ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या कहा गया है। भारतीय मनीषी विद्या के दो रूप बताते हैं– परा विद्या और अपरा विद्या। परा विद्या को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं, जबकि अपरा विद्या सगुण ज्ञान या भौतिक ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्ध रखती है। यदि अपरा विद्या को जीवन का प्रथम सोपान मान लिया जाय, तो परा विद्या द्वितीय और अनन्तिम सोपान कही जा सकती है। दोनों विद्याओं का अपना-अपना महत्व है और अपनी-अपनी प्रतिष्ठा। विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख की सार्थक यात्रा के लिए जीवन में दोनों विद्याओं का सम्यक् ज्ञान और अनुशीलन बहुत जरूरी है। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश भी यही कहता है–
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
विद्या मृत्युं तीर्त्वा विद्यामृतमश्नुते।।
अर्थात् जो विद्या और अविद्या दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से देवत्व (देवतात्मभाव) प्राप्त कर लेता है।
विद्या का सम्यक् ज्ञान कितना जरूरी है, यह हम सभी जानते हैं। विद्या विनय देती है; विनय न हो तो अविनय अपना स्थान जमा लेगा और अहंकार का प्रादुर्भाव होगा। अहंकार से भी 'येन-केन-प्रकारेण' योग्यता एवं धन प्राप्त किया जा सकता है और लोक में आडम्बरपूर्ण व्यवहार से अपने 'मनोरथ' सिद्ध किये जा सकते हैं, परन्तु उससे धर्म नहीं होता है। धर्म का अर्थ होता है धारण करना। धारण क्या करना है? गुणों को धारण करना है। धरती, आकाश, जल, अग्नि, वायु आदि सभी पदार्थ अनादि काल से अब तक अपने-अपने गुणों को धारण किये हैं और सृष्टि के अवसान तक धारण किये भी रहेंगे। वे अपना धर्म नहीं छोड़ते, तो हम अपना धर्म कैसे छोड़ दें! इसलिए हमें भी प्रेम, दया, दान, करुणा, अहिंसा, सत्य, न्याय, सदाचरण, परोपकार, परिश्रम आदि गुणों को धारणकर कर्तव्य-पथ पर आगे बढ़ना होगा– 'चरैवेति, चरैवेति।' इससे आत्मोन्नयन भी होगा और भौतिक प्रगति और समृद्धि भी। गौतम ऋषि भी कहते हैं–
यतो अभ्युदयनिश्रेयस् सिद्धिः स धर्म।
अर्थात् जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस् की सिद्धि हो, वह धर्म है।
विद्या से विनय और विनय से विवेक जागृत होता है। वास्तव में, आज जिसे ज्ञान अथवा विद्या कहकर देश-दुनिया के तमाम शिक्षण संस्थानों, शोध-केंद्रों, ज्ञान-विज्ञान के प्रांगणों में परोसा जा रहा है, वह केवल सूचनाभर है। मस्तिष्क में सूचनाएँ भर देने से मनुष्य एक 'सूचना संग्रहालय-पुस्तकालय' तो बन सकता है, परन्तु उसका चरित्र निर्माण नहीं हो सकता, उसमें जीवन-मूल्य प्रतिष्ठित नहीं हो सकते हैं। वर्तमान में जीवन-मूल्यों को अधिष्ठित-पोषित-विस्तृत करने की परम आवश्यकता है, जिसके लिए बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।
यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि आठवीं शताब्दी में सिद्ध चौरंगीनाथ जी (पूरण भगत) द्वारा मठ की स्थापना हुई थी और इसके बाद सिद्ध शिरोमणि बाबा मस्तनाथ जी द्वारा अठारहवीं शताब्दी में इस मठ को पुनरुज्जीवित किया गया। तब से लेकर अब तक बाबा मस्तनाथ मठ अनवरत रूप से 'विधेयम् जन सेवनम्' का मंत्र लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक एवं अकादमिक क्षेत्र में प्रशंसनीय काम करता आ रहा है। यह मठ 1915 ई. से शिक्षा के क्षेत्र में अग्रसर है और ट्रस्ट द्वारा 1957 में आयुर्वेद का पहला प्रोफेशनल कॉलेज स्थापित किया गया था। उसके बाद मई 2012 में हरियाणा प्राइवेट यूनिवर्सिटी एक्ट- 2006 के तहत यह विश्वविद्यालय स्थापित किया गया था। राष्ट्रीय राजमार्ग (10) पर 200 एकड़ में फैला यह विश्वविद्यालय आज फार्मेसी संकाय, विज्ञान संकाय, आयुर्वेद संकाय, वाणिज्य और प्रबंधन संकाय, विधि संकाय, मानविकी संकाय, फिजियोथेरेपी संकाय, इंजीनियरिंग संकाय, शिक्षा संकाय और एसबीएमएन नर्सिंग संस्थान के साथ बड़ी तीव्रता के साथ अकादमिक संसार में अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने में प्रयासरत है। इतना ही नहीं, विश्वविद्यालय अपने विद्यार्थियों को व्यवसायोन्मुखी शिक्षा तथा व्यावसायिक मूल्यपरक ज्ञान देने के लिए भी विश्रुत है।
हम सब के लिए गौरव की बात है कि यह विश्वविद्यालय नाथपंथियों की प्रमुख संस्था है। नाथपंथ के उपाध्यक्ष तथा इस विश्वविद्यालय के कुलाधिपति माननीय महंत बालकनाथ जी अपने अकादमिक आयोजनों एवं सामाजिक संवादों से चरित्र निर्माण, मनुष्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण में सतत साधनारत हैं। ऐसी अनुपम विभूति की जाग्रत प्रेरणा से ही यह विश्वविद्यालय इस देश के छात्र-छात्राओं, युवाओं, भविष्य निर्माताओं में बौद्धिक क्षमता के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्य चेतना और राष्ट्रीयता की भावना की प्रतिष्ठा एवं विस्तार करने के लिए कृत-संकल्प है।
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